पिछले बरस तुम साथ थे मेरे…
पिछले बरस तुम साथ थे मेरे और दिसम्बर था महके हुए दिन रात थे मेरे …
पिछले बरस तुम साथ थे मेरे और दिसम्बर था महके हुए दिन रात थे मेरे …
ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं शुक्रिया मश्वरत का चलते हैं, हो रहा हूँ …
यूँ अपनी गज़लों में न जताता कि मोहब्बत क्या है गर मिलते तो कर के …
सज़ा पे छोड़ दिया, कुछ जज़ा पे छोड़ दिया हर एक काम को अब मैंने …
उसको जाते हुए देखा था पुकारा था कहाँ रोकते किस तरह वो शख़्स हमारा था …
दर्द अब वो नहीं रहें जो ऐ दिल ए नादां पहले था खुले सर पर …
देखोगे हमें रोज़ मगर बात न होगी एक शहर में रह कर भी मुलाक़ात न …
इश्क़ मैंने लिख डाला क़ौमीयत के ख़ाने में और तेरा दिल लिखा शहरियत के ख़ाने …
माना कि यहाँ अपनी शनासाई भी कम है पर तेरे यहाँ रस्म ए पज़ीराई भी …