शजर में शजर सा बचा कुछ नहीं
हवाओं से फिर भी गिला कुछ नहीं,
कहा क्या गुज़रते हुए अब्र ने
झुलसती ज़मीं ने सुना कुछ नहीं,
किनारों पे लिखा था क्या क्या मगर
किसी मौज ने भी पढ़ा कुछ नहीं,
चलो अब किसी की दुआ मिल गई
मेरे पास वैसे भी था कुछ नहीं,
उसे अब भी फ़ारूक़ कहते हो घर
अब इस में तो घर सा बचा कुछ नहीं..!!
~फ़ारूक़ इंजीनियर