शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते है बच्चे और मर जाता हूँ मैं,
जानता हूँ रेत पर वो चिलचिलाती धूप है
जाने किस उम्मीद में फिर भी उधर जाता हूँ मैं,
सारी दुनियाँ से अकेले जूझ लेता हूँ कभी
और कभी अपने ही साये से भी डर जाता हूँ मैं,
ज़िन्दगी जब मुझ से मजबूती की रखती है उम्मीद
फ़ैसले की उस घड़ी में क्यूँ बिखर जाता हूँ मैं ?
आपके रस्ते है आसां आपकी मंज़िल है क़रीब
ये डगर कुछ और ही है जिस डगर जाता हूँ मैं..!!
~राजेश रेड्डी