मुझे हयात के साँचों में ढालने वाले
कहाँ गए वो समुंदर खंगालने वाले,
लुढ़क रहा हूँ ढलानों से प्यार के मैं तो
न आएँ राह में मुझको सँभालने वाले,
हमारे शौक़ ए फ़रावाँ ने डस लिया हमको
कि आस्तीं में थे हम साँप पालने वाले,
हवा में फेंक न मुझ को समझ के खेल कोई
तुझी को आ के लगूँगा उछालने वाले,
ज़रा सा काम हूँ मैं फिर भी नामुकम्मल हूँ
यहाँ मिले हैं सभी मुझ को टालने वाले,
कुआँ हवस का था गहरा कुछ इस क़दर अख़्तर
कि ख़ुद ही गिर गए मुझ को निकालने वाले..!!
~एहतिशाम अख्तर