मैं सोज़िश ए ग़म ए दौराँ से यूँ जला ख़ामोश
कि जैसे बज़्म में जलता हो एक दिया ख़ामोश,
ये और बात कि होंठों पे लफ़्ज़ बिखरे थे
मगर था बोलने वालों का मुद्दआ ख़ामोश,
अभी न छेड़िए ख़्वाबीदा मौसमों का मिज़ाज
अभी है रात के आँचल में हर फ़ज़ा ख़ामोश,
मेरी सरिश्त में ख़ामोशियों का ज़हर न घोल
न रह सकेगा मिरा ज़ौक़ ए हक़नवा ख़ामोश,
बदन की क़ैद में चीख़ें न घुट के मर जाएँ
सिसकते कर्ब को क्यूँ तुम ने कर दिया ख़ामोश,
लहकती आँख धड़कते दिलों के पास न ला
गुज़र न जाए कहीं कोई हादिसा ख़ामोश
हर एक सम्त है बिखरा हुआ सुकूत आज़र
इधर हैं देवता पत्थर उधर ख़ुदा ख़ामोश..!!
~मुश्ताक़ आज़र फ़रीदी