माना कि यहाँ अपनी शनासाई भी कम है
पर तेरे यहाँ रस्म ए पज़ीराई भी कम है,
हाँ ताज़ा गुनाहों के लिए दिल भी है बेताब
और पिछले गुनाहों की सज़ा पाई भी कम है,
कुछ कार ए जहाँ जाँ को ज़ियादा भी लगे हैं
कुछ अब के बरस याद तेरी आई भी कम है,
कुछ ग़म भी मयस्सर हमें अब के हैं ज़ियादा
कुछ ये कि मसीहा की मसीहाई भी कम है,
कुछ ज़ुल्म ओ सितम सहने की आदत भी है हमको
कुछ ये है कि दरबार में सुनवाई भी कम है..!!
~ज़िया ज़मीर