लोग सह लेते थे हँस कर कभी बेज़ारी भी…

लोग सह लेते थे हँस कर कभी बेज़ारी भी
अब तो मश्कूक हुई अपनी मिलन सारी भी,

वार कुछ ख़ाली गए मेरे तो फिर आ ही गई
अपने दुश्मन को दुआ देने की होशियारी भी,

उम्र भर किस ने भला ग़ौर से देखा था मुझे
वक़्त कम हो तो सजा देती है बीमारी भी,

किस तरह आए हैं इस पहली मुलाक़ात तलक
और मुकम्मल है जुदा होने की तैयारी भी,

ऊब जाता हूँ ज़ेहानत की नुमाइश से तो फिर
लुत्फ़ देता है ये लहजा मुझे बाज़ारी भी,

उम्र बढ़ती है मगर हम वहीं ठहरे हुए हैं
ठोकरें खाईं तो कुछ आए समझदारी भी,

अब जो किरदार मुझे करना है मुश्किल है बहुत
मस्त होने का दिखावा भी है सर भारी भी,

~शारिक़ कैफ़ी

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