क्या अभी कहियेगा मुझ को अपना सौदाई कि बस
और कुछ मद्द ए नज़र है अपनी रुस्वाई कि बस,
चौदहवीं का चाँद फूलों की महक ठंडी हवा
रात उस काफ़िर अदा की ऐसी याद आई कि बस,
हम को तो मंज़ूर है ही अपनी तस्कीन ए नज़र
है मगर उन को भी वो शौक़ ए ख़ुद आराई कि बस,
जब मुझे देखा उन्हें शर्म आ गई घबरा गए
वो हुई है ख़ैर से दोनों कि रुस्वाई कि बस,
अब भी कोह ए तूर पर गोया ज़बान ए हाल से
है कोई और उस के जल्वे का तमन्नाई कि बस,
चाक करने ही को था मैं दामन ए होश ओ ख़िरद
जाने किस की मेरे कानों में सदा आई कि बस,
आज वहशत से मिरी घबरा गए वो भी रईस
आज तो ख़ुद पर मुझे इतनी हँसी आई कि बस..!!
~रईस रामपुरी
कल तक ये फूल रूह ए रवाँ थे बहार के
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