किसी कमज़ोर की जब भी दुआएँ गूँज उठती है

किसी कमज़ोर की जब भी दुआएँ गूँज उठती है
अबाबीलों के लश्कर से फज़ाएँ गूँज उठती है,

ख़ामोशी में भी रह कर भी गूँजते है गूँजने वाले
जुबां ख़ामोश रहती है अदाएँ गूँज उठती है,

अगरचे दास्ताँ के मरकज़ी किरदार बदले है
सदाएँ हक़ से अब भी कर्बलाएँ गूँज उठती है,

मैं अपनी ज़ात के गुम्बद में जब आवाज़ देता हूँ
तो मेरी ज़ात में तेरी ज़फाएँ गूँज उठती है,

चिरागों को जलाने का इरादा जब भी करते है
कहीं नज़दीक ही सरकश हवाएँ गूँज उठती है,

अगर हम हद में रहने की कोई कोशिश करें
तबीयत में हज़ारों इन्तेहाएँ गूँज उठती है..!!

Leave a Reply

error: Content is protected !!