कहानियों ने ज़रा खींच कर बदन अपने…

कहानियों ने ज़रा खींच कर बदन अपने
हरम सरा से बुलाया हमें वतन अपने,

खुले गले की क़मीसें खुले गले के फ़िराक़
ये लड़कियाँ हैं बदलती हैं पैरहन अपने,

ग़दर के फूल सजाती हैं ऐसे बालों में
सँभाल सकती हों जैसे भरे बदन अपने,

अजब भड़क है शराबों की और आँखों की
बला है हुस्न बिदकने लगे हैं बन अपने,

पराए दर्द की ठिकरी से घर करें रौशन
कि सिफ़्लगी की रियाज़त में हैं मगन अपने,

ये इंकिसार के पुतले ये सीम-ओ-ज़र की सना
ये मस्ख़रे हैं कि चोले में गोरकन अपने,

हमें निकालो घरों की कमीन गाहों से
लहू के रम से दहकने लगे ख़ुतन अपने,

हम एहतियाज के हुजरों से रिज़्क़ चुनते हुए
ज़मीं के ख़्वान पे रखने लगे लगन अपने,

ये आरज़ूओं के चक़माक़ से जले सीने
जो आतिशीं हैं मगर नोचते हैं तन अपने,

यहाँ ज़मीन पे बलवे यहाँ ज़मीं पे फ़साद
निकाल रखते हैं संदूक़ से कफ़न अपने,

वो बास दूर के ख़तों की औरतों में उड़ी
जिसे जहाज़ों में लाए थे हम-सुख़न अपने..!!

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