कभी कहा न किसी से तेरे फ़साने को
न जाने कैसे ख़बर हो गई ज़माने को,
दुआ बहार की मांगी तो इतने फूल खिले
कहीं जगह न रही मेरे आशियाने को,
मेरी लहद पे पतंगों का ख़ून होता है
हुज़ूर शमाँ न लाया करें जलाने को,
सुना है ग़ैर की महफ़िल में तुम न जाओगे
कहो तो आज सजा लूं ग़रीब ख़ाने को,
दबा के क़ब्र में सब चल दिए दुआ न सलाम
ज़रा सी देर में क्या हो गया ज़माने को ?
अब आगे इसमें तुम्हारा भी नाम आएगा
जो हुक्म हो तो यहीं छोड़ दूं फ़साने को ?
‘क़मर’ ज़रा भी नहीं तुम को ख़ौफ़ ए रुस्वाई
चले हो चांदनी शब में उन्हें मनाने को..!!
~क़मर जलालवी