जो पूछती हो तो सुनो ! कैसे बसर होती है
रात खैरात की, सदके की सहर होती है,
साँस भरने भर को तो जीना नहीं कहते
दिल भी दुखता है और आस्तीं तर होती है,
जागती आँखों में चुभते है काँच के ख़्वाब
रात कुछ यूँ हम दीवानों की बसर होती है,
गम ए हिज़्र दुश्मन ए जाँ दिल को ढूँढता है
लम्हे भर की भी तुमसे जुदाई अगर होती है,
एक मरकज़ की तलाश, ना मालूम खुश्बू
कभी मंज़िल, कभी तम्हीद ए सफ़र होती है,
दिल ए नायाब को आख़िर छुपाये तो कहाँ ?
बारिश ए संग तो यहाँ आठो पहर होती है,
काम आते है न आएँगे ये बे जाँ अल्फाज़
तर्ज़ुमा दर्द की ख़ामोश बस नज़र होती है..!!