जब तलक लगती नहीं है बोलियाँ मेरे पिता
तब तलक उठती नहीं है डोलिया मेरे पिता,
आज भी पगड़ी मिलेगी बेकसी के पाँव में
ठोकरों में आज भी है पसलियाँ मेरे पिता,
बेघरो का आसरा थे जो कभी बरसात में
उन दरख्तों पर गिरी है बिजलियाँ मेरे पिता,
आग से कैसे बचाएँ खुबसूरत ज़िन्दगी
एक माचिस में कई है तीलियाँ मेरे पिता,
जब तलक ज़िन्दा रहेगी जाल बुनने की प्रथा
तब तलक फँसती रहेंगी मछलियाँ मेरे पिता,
जिसका जी चाहे नचाएँ और एक दिन फूँक दे
हम नहीं है काठ की वो पुतलियाँ मेरे पिता,
मैंने बचपन में खिलौना तक कभी माँगा नहीं
मेरा बेटा माँगता है गोलियाँ मेरे पिता..!!
~माणिक वर्मा