हम बिछड़ के तुम से बादल की तरह रोते रहे
थक गए तो ख़्वाब की दहलीज़ पर सोते रहे,
ज़िंदगी ने हाथ से ख़ंजर न रखा एक पल
हम क़तील ए ग़म्ज़ा ओ नाज़ ए बुताँ होते रहे,
लोक लहजे का सुहाना पन सुख़न की नग़्मगी
शहर की आबादियों के शोर में खोते रहे,
क्यूँ मता ए दिल के लुट जाने का कोई ग़म करे
शहर ए दिल्ली में तो ऐसे वाक़िए होते रहे,
सुर्ख़ियाँ अख़बार की गलियों में ग़ुल करती रहीं
लोग अपने बंद कमरों में पड़े सोते रहे,
महफ़िलों में हम रफ़ीक़ ओ राज़ दाँ समझे गए
घर के आँगन में मगर तन्हाइयाँ बोते रहे..!!
~ज़ुबैर रिज़वी
जश्न ए ग़म हा ए दिल मनाता हूँ
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