हर एक शख़्स परेशान ओ दर बदर सा लगे
ये शहर मुझको तो यारो कोई भँवर सा लगे,
अब उसके तर्ज़ ए तजाहुल को क्या कहे कोई
वो बेख़बर तो नहीं फिर भी बेख़बर सा लगे,
हर एक ग़म को ख़ुशी की तरह बरतना है
ये दौर वो है कि जीना भी एक हुनर सा लगे,
नशात ए सोहबत ए रिंदाँ बहुत ग़नीमत है
कि लम्हा लम्हा पुर आशोब ओ पुरख़तर सा लगे,
किसे ख़बर है कि दुनिया का हश्र क्या होगा ?
कभी कभी तो मुझे आदमी से डर सा लगे,
वो तुंद वक़्त की रौ है कि पाँव टिक न सकें
हर आदमी कोई उखड़ा हुआ शजर सा लगे,
जहान ए नौ के मुकम्मल सिंगार की ख़ातिर
सदी सदी का ज़माना भी मुख़्तसर सा लगे..!!
~जाँ निसार अख़्तर