हारे हुए नसीब का मयार देख कर
वो चल पड़ा है इश्क़ का अख़बार देख कर,
आयेंगी काम देखना कागज़ की कश्तियाँ
हाथों में एक यकीन का पतवार देख कर,
करतास पर सजा दिया अपने ही दुःख का फन
उस अहद ए कुर्बनाक का फ़नकार देख कर,
पहले की तरह आज भी तन्हा तो हूँ मगर
कद बढ़ गया है बाप की दस्तार देख कर,
इन्सान की तो खू है ये इन्सान नोचना
दुनियाँ में मुफ़्लिसी का अज़ादार देख कर,
दश्त ए वफ़ा में रक्स के जलते है कुछ चिराग़
आँखों में उनके अपना ही अक्स बार बार देख कर..!!