हाकिम ए शहर के अंदाज़ हैं हिंदा जैसे

हाकिम ए शहर के अंदाज़ हैं हिंदा जैसे
हम तो हाथों में थमा देंगे कलेजा जैसे,

सख़्त मुश्किल था मुझे छोड़ के आना तुझ को
सुकड़ी गलियों से निकलता है जनाज़ा जैसे,

यूँ दिलाया है उसे अपनी मोहब्बत का यक़ीन
मुंकिर ए दीं को पढ़ाया गया कलमा जैसे,

उस का झुँझलाना तो बनता था कि मैं ने उस को
ऐसे देखा कभी देखा ही नहीं था जैसे,

ज़िंदगी साथ तेरे इतनी हसीं लगती है
धूप में बैठा हुआ दूध मुँह बच्चा जैसे,

ज़िंदगी घूम रही है तेरी यादें ले कर
मौत के घर में टहलती हुई बेवा जैसे..!!

~इब्राहीम अली ज़ीशान

जनाब ए आली बिछड़ने की कोई बात नहीं

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