गरेबाँ दर गरेबाँ नुक्ता आराई भी होती है

गरेबाँ दर गरेबाँ नुक्ता आराई भी होती है
बहार आए तो दीवानों की रुस्वाई भी होती है,

हम उन की बज़्म तक जा ही पहुँचते हैं किसी सूरत
अगरचे राह में दीवार ए तन्हाई भी होती है,

बिखरती है वही अक्सर ख़िज़ाँ-परवर बहारों में
चमन में जो कली पहले से मुरझाई भी होती है,

बनाम ए कुफ्र ओ ईमाँ बेमुरव्वत हैं जहाँ दोनों
वहाँ शैख़ ओ बरहमन की शनासाई भी होती है,

चमकती है कोई बिजली तो शम ए रहगुज़र बन कर
निगाह ए बरहम इन की कुछ तो शर्माई भी होती है,

‘क़तील’ उस दम भी रहता है यही एहसास ए महरूमी
जब उन शानों पे ज़ुल्फ़ों की घटा छाई भी होती है..!!

~क़तील शिफ़ाई

Leave a Reply

Subscribe