फिर आईना ए आलम शायद कि निखर जाए

फिर आईना ए आलम शायद कि निखर जाए
फिर अपनी नज़र शायद ताहद्द ए नज़र जाए,

सहरा पे लगे पहरे और क़ुफ़्ल पड़े बन पर
अब शहर बदर हो कर दीवाना किधर जाए,

ख़ाक ए रह ए जानाँ पर कुछ ख़ूँ था गिरौ अपना
इस फ़स्ल में मुमकिन है ये क़र्ज़ उतर जाए,

देख आएँ चलो हम भी जिस बज़्म में सुनते हैं
जो ख़ंदा ब लब आए वो ख़ाक बसर जाए,

या ख़ौफ़ से दर-गुज़रें या जाँ से गुज़र जाएँ
मरना है कि जीना है एक बात ठहर जाए..!!

~फैज़ अहमद फैज़

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