फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था
सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था,
वो कि ख़ुशबू की तरह फैला था मेरे चार सू
मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था,
रात भर पिछली सी आहट कान में आती रही
झाँक कर देखा गली में कोई भी आया न था,
मैं तेरी सूरत लिए सारे ज़माने में फिरा
सारी दुनिया में मगर कोई तेरे जैसा न था,
आज मिलने की ख़ुशी में सिर्फ़ मैं जागा नहीं
तेरी आँखों से भी लगता है कि तू सोया न था,
ये सभी वीरानियाँ उस के जुदा होने से थीं
आँख धुँदलाई हुई थी शहर धुँदलाया न था,
सैंकड़ों तूफ़ान लफ़्ज़ों में दबे थे ज़ेर ए लब
एक पत्थर था ख़मोशी का कि जो हटता न था,
याद कर के और भी तकलीफ़ होती थी अदीम
भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था,
मस्लहत ने अजनबी हमको बनाया था अदीम
वर्ना कब एक दूसरे को हम ने पहचाना न था..!!
~अदीम हाशमी