एक रात आती है एक रात जाती है
गेसुओं के साए में किस को नींद आती है,
सिलसिला ग़म ए दिल का बेसबब नज़र आया
शम से कोई पूछे क्यों लहू जलाती है,
हुस्न से भी कुछ बढ़ कर बेनियाज़ है ये ग़म
दाग़ ए दिल मोहब्बत भी गिन के भूल जाती है,
नाम पड़ गया उस का कूचा ए हरम लेकिन
ये गली भी ऐ ज़ाहिद मयकदे को जाती है,
चलते चलते नब्ज़ ए ग़म डूबती है यूँ अक्सर
एक थके मुसाफ़िर को जैसे नींद आती है,
हाथ रखती जाती है यास दिल के दाग़ों पर
मैं दिया जलाता हूँ वो दिया बुझाती है,
मिट गए नुशूर आ कर ज़ेहन में हज़ारों ग़म
शेरियत का आलम भी रम्ज़ ए बेसबाती है..!!
~नुशूर वाहिदी