एक लम्हा कि मिलें सारे ज़माने जिसमें
एक नुक्ता सभी हिकमत के ख़ज़ाने जिसमें,
दायरा जिसमें समा जाएँ जहानों की हुदूद
आइना जिसमें नज़र आए अदम का भी वजूद,
फ़र्श पर अर्श की अज़्मत की दलील ए मोहकम
ख़ल्क़ पर रहमत ए ख़ालिक़ की सबील ए मोहकम,
दस्तरस उसकी निगाहों की कराँ ता ब कराँ
वो तजस्सुस के लिए आख़िरी मंज़िल का निशाँ,
एक तौसीअ जो क़िस्मत की लकीरों में रहे
एक तंबीह जो बेदार ज़मीरों में रहे..!!
~जलील आली