कैसी महफ़िल है ज़ालिम तेरे शहर में…
कैसी महफ़िल है ज़ालिम तेरे शहर में यहाँ हर कोई ही डूबा हुआ है ज़हर …
कैसी महफ़िल है ज़ालिम तेरे शहर में यहाँ हर कोई ही डूबा हुआ है ज़हर …
ख़ुद को इतना जो हवादार समझ रखा है क्या हमें रेत की दीवार समझ रखा …
जब भी इस शहर में कमरे से मैं बाहर निकला मेरे स्वागत को हर एक …
वो शख़्स कि मैं जिस से मोहब्बत नहीं करता हँसता है मुझे देख के नफ़रत …
क्यूँ ज़मीं है आज प्यासी इस तरह ? हो रही नदियाँ सियासी इस तरह, जान …
वतन को कुछ नहीं ख़तरा निज़ाम ए ज़र है ख़तरे में हक़ीक़त में जो रहज़न …
दौर ए ज़दीद में गुनाह ओ सवाब बिकते है वतन में अब जुबां, क़लम ज़नाब …
खेल दोनों का चले तीन का दाना न पड़े सीढ़ियाँ आती रहें साँप का ख़ाना …
और सब भूल गए हर्फ़ ए सदाक़त लिखना रह गया काम हमारा ही बग़ावत लिखना, …
अपनों ने वो रंज दिए हैं बेगाने याद आते हैं देख के उस बस्ती की …