अजब अपना हाल होता जो विसाल ए यार होता
कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता,
कोई फ़ित्ना ता क़यामत न फिर आश्कार होता
तेरे दिल पे काश ज़ालिम मुझे इख़्तियार होता,
जो तुम्हारी तरह तुम से कोई झूठे वादे करता
तुम्हीं मुंसिफ़ी से कह दो तुम्हें एतिबार होता ?
ग़म ए इश्क़ में मज़ा था जो उसे समझ के खाते
ये वो ज़हर है कि आख़िर मय ए ख़ुशगवार होता,
ये मज़ा था दिललगी का कि बराबर आग लगती
न तुझे क़रार होता न मुझे क़रार होता,
न मज़ा है दुश्मनी में न है लुत्फ़ दोस्ती में
कोई ग़ैर ग़ैर होता कोई यार यार होता,
तेरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते
अगर अपनी ज़िंदगी का हमें एतिबार होता,
ये वो दर्द ए दिल नहीं है कि हो चारासाज़ कोई
अगर एक बार मिटता तो हज़ार बार होता,
गए होश तेरे ज़ाहिद जो वो चश्म ए मस्त देखी
मुझे क्या उलट न देते जो न बादाख़्वार होता,
मुझे मानते सब ऐसा कि अदू भी सज्दे करते
दर ए यार काबा बनता जो मेरा मज़ार होता,
तुम्हें नाज़ हो न क्यूँकर कि लिया है दाग़ का दिल
ये रक़म न हाथ लगती न ये इफ़्तिख़ार होता..!!
~दाग़ देहलवी