अश्क जब हम बहाने लगते हैं
कितने ही गम ठिकाने लगते हैं
आईना ले के निकले जब जब हम
लोग चेहरे छुपाने लगते हैं
हम जहां पहुंचे फिर वहां से अब
लौटने में ज़माने लगतें हैं
जिक्र होता है मेरे कत्ल का जब
वो क्यूं नज़रें चुराने लगते हैं
आग बुझती है उनके अश्कों से
मेरे ख़त जब जलाने लगते हैं
तूने हमसे छुपाया है कुछ तो
तेरे जिक्र पे सब मुस्कुराने लगते हैं
अनमना सा मन और ये अलगरजी
ऐसे थोड़ी निशाने लगते हैं
मेरे मरने की खबर भी उनको
उनसे न मिलने के बहाने लगते हैं
बाप को बाप नहीं समझते फिर
बच्चे जब ख़ुद कमाने लगते हैं
‘ राज ‘ अंदाज़ ए बयां बदल अपना
तेरे सच्च अब फ़साने* लगते हैं
~ राजिंदर सिंह ‘ बग्गा ‘~