अपनी आँखें हैं और तुम्हारे ख़्वाब
कितने पुर कैफ़ हैं हमारे ख़्वाब,
उन के हक़ में बड़ा सहारा हैं
देखते हैं जो बे सहारे ख़्वाब,
हासिल ए ज़िंदगी जिन्हें कहिए
कुछ हमारे हैं कुछ तुम्हारे ख़्वाब,
यूँही बनते बिगड़ते रहते हैं
गर्दिश ए वक़्त के सहारे ख़्वाब,
हाँ न टूटे तिलिस्म ए ख़ुशफ़हमी
यूँही देखो रईस प्यारे ख़्वाब..!!
~रईस रामपुरी
जैसे कोई रब्त नहीं हो जैसे हों अनजाने लोग
➤ आप इन्हें भी पढ़ सकते हैं






























1 thought on “अपनी आँखें हैं और तुम्हारे ख़्वाब”