अब इश्क़ तमाशा मुझे दिखलाए है कुछ और

अब इश्क़ तमाशा मुझे दिखलाए है कुछ और
कहता हूँ कुछ और मुँह से निकल जाए है कुछ और,

नासेह की हिमाक़त तो ज़रा देखियो यारो
समझा हूँ मैं कुछ और मुझे समझाए है कुछ और,

क्या दीदा ए ख़ूँ बार से निस्बत है कि ये अब्र
बरसाए है कुछ और वो बरसाए कुछ और,

रोने दे, हँसा मुझ को न हमदम कि तुझे अब
कुछ और ही भाता है मुझे भाए है कुछ और,

पैग़ाम बर आया है ये औसान गँवाए
पूछूँ हूँ मैं कुछ और मुझे बतलाए है कुछ और,

जुरअत की तरह मेरे हवास अब नहीं बर जा
कहता हूँ कुछ और मुँह से निकल जाए है कुछ और..!!

~जुरअत क़लंदर बख़्श

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