ज़ख़्म का मरहम दर्द का अपने दरमाँ…

ज़ख़्म का मरहम दर्द का अपने दरमाँ बेच के आए हैं
हम लम्हों का सौदा कर के सदियाँ बेच के आए हैं,

बिकने पर जब आ ही गए थे ऊँचे मोल तो बिकते हम
हम को हमारे रहबर लेकिन अर्ज़ां बेच के आए हैं,

मेंह क्यूँ बरसे ख़ुश्क ज़मीं पर कैसे हो मक़्बूल ए दुआ
जब ख़ुद बारिश माँगने वाले नदियाँ बेच के आए हैं,

भूक की ये शिद्दत भी आख़िर क्या से क्या कर देती है
मजबूरन कल बच्चों की हम गुड़ियाँ बेच के आए हैं,

~नवाज़ देवबंदी

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