रात दरपेश थी मुसाफ़िर को

रात दरपेश थी मुसाफ़िर को
नींद क्यों आ गई मुसाफ़िर को ?

क्या नगर है ये दिल दिखाई दे
हर तरफ़ आग सी मुसाफ़िर को,

कल मोहब्बत सरा ए हैरत में
एक मिला अजनबी मुसाफ़िर को,

याद के बे कराँ समुंदर में
एक लहर ले चली मुसाफ़िर को,

याद आ जाएँ ख़्वाब जैसे लोग
जाने कब किस घड़ी मुसाफ़िर को,

साथ ले कर चली गई अपने
एक परी साँवली मुसाफ़िर को,

एक सदा थी कि हर घड़ी हर पल
जो बुलाती रही मुसाफ़िर को,

एक कहानी बहुत पुरानी सी
याद आती रही मुसाफ़िर को,

चुप लगी जब भी भूलने वाले
याद आए कभी मुसाफ़िर को,

दूर बस एक चराग़ जलता था
वो अजब रात थी मुसाफ़िर को,

मौत का दश्त पार कर लेता
उम्र की क़ैद थी मुसाफ़िर को,

ले चली है नई रिफ़ाक़त की
एक नई रौशनी मुसाफ़िर को,

एक वहशत में ले के फिरती थी
रात भर चाँदनी मुसाफ़िर को,

देर तक याद कर के रोती रही
एक लड़की किसी मुसाफ़िर को,

खींच लाती है अपनी मिट्टी तक
ख़ाक की दोस्ती मुसाफ़िर को..!!

~नून मीम दनिश

ख़याल ओ ख़्वाब में होना सदा ए बाद में रहना

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