शिकस्त ए ख़्वाब का हमें मलाल क्यूँ नहीं रहा
बिछड़ गए तो फिर तिरा ख़याल क्यूँ नहीं रहा ?
अगर ये इश्क़ है तो फिर वो शिद्दतें कहाँ गईं
अगर ये वस्ल है तो फिर मुहाल क्यूँ नहीं रहा ?
वो ज़ुल्फ़ ज़ुल्फ़ रात क्यूँ बिखर बिखर के रह गई
वो ख़्वाब ख़्वाब सिलसिला बहाल क्यूँ नहीं रहा ?
वो साया जो बुझा तो क्या बदन भी साथ बुझ गया
नज़र को तीरगी का अब मलाल क्यूँ नहीं रहा ?
वो दौर जिस में आगही के दर खुले थे क्या हुआ
ज़वाल था तो उम्र भर ज़वाल क्यूँ नहीं रहा ?
कहीं से नक़्श बुझ गए कहीं से रंग उड़ गए
ये दिल तेरे ख़याल को सँभाल क्यूँ नहीं रहा ??
~इरफ़ान सत्तार

























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