हुज़ूर हद भी कोई होवे इंतिज़ारी की

हुज़ूर हद भी कोई होवे इंतिज़ारी की
कि इंतिहा हुई जावे है बे क़रारी की,

न कुछ कहो हो बुलाओ हो और न आओ हो
अजीब तर्ज़ है जानाँ वफ़ा शिआरी की,

अगर न आना था तुम को तो क्यों किया वादा
बहुत ही ख़ूब सज़ा दी है एतिबारी की,

शब ए फ़िराक़ तुम्हारा ही रास्ता देखा
शब ए फ़िराक़ फ़क़त हम ने आह ओ ज़ारी की,

कभी तो होवे सहर भी तुम्हारे क़दमों पर
तवील रात बहुत है गुनाह गारी की,

जला न देवे कहीं दिल को आतिश ए हसरत
ये बुझ न पाई बहुत हम ने अश्क बारी की,

ज़ईफ़ हो गए अकबर मगर नशा न गया
जवाब ही नहीं साक़ी वो बादा ख़्वारी की..!!

~अकबर अज़ीमाबादी

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