आया है हर चढ़ाई के बाद एक उतार भी

आया है हर चढ़ाई के बाद एक उतार भी
पस्ती से हम कनार मिले कोहसार भी,

आख़िर को थक के बैठ गई एक मक़ाम पर
कुछ दूर मेरे साथ चली रहगुज़ार भी,

दिल क्यूँ धड़कने लगता है उभरे जो कोई चाप
अब तो नहीं किसी का मुझे इंतिज़ार भी,

जब भी सुकूत ए शाम में आया तेरा ख़याल
कुछ देर को ठहर सा गया आबशार भी,

कुछ हो गया है धूप से ख़ाकिस्तरी बदन
कुछ जम गया है राह का मुझ पर ग़ुबार भी,

इस फ़ासलों के दश्त में रहबर वही बने
जिस की निगाह देख ले सदियों के पार भी,

ऐ दोस्त पहले क़ुर्ब का नशा अजीब था
मैं सुन सका न अपने बदन की पुकार भी,

रस्ता भी वापसी का कहीं बन में खो गया
ओझल हुई निगाह से हिरनों की डार भी,

क्यूँ रो रहे हो राह के अंधे चराग़ को
क्या बुझ गया हवा से लहू का शरार भी ?

कुछ अक़्ल भी है बाइस ए तौक़ीर ऐ शकेब
कुछ आ गए हैं बालों में चाँदी के तार भी..!!

~शकेब जलाली

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