पड़ा हुआ मैं किसी आइने के घर में हूँ

पड़ा हुआ मैं किसी आइने के घर में हूँ
ये तेरा शहर है या ख़्वाब के नगर में हूँ,

उड़ाए फिरती है अनदेखे साहिलों की हवा
मैं एक उम्र से एक बे कराँ सफ़र में हूँ,

तुझे ये वहम कि मैं तुझ से बेतअल्लुक़ हूँ
मुझे ये दुख कि तेरे हल्क़ा ए असर में हूँ,

मेंरी तलाश में गर्दां हैं तीर किरनों के
छुपा हुआ मैं ख़ुनुक साया ए शजर में हूँ,

मैं तेरी सम्त भी आऊँगा मारिफ़त को तेरी
अभी तो अपने ही इरफ़ाँ की रहगुज़र में हूँ,

तेरी उड़ान में शामिल है तरबियत मेरी
मुझे न भूल कि मैं तेरे बाल ओ पर में हूँ,

बुला रहा है उधर मुझ को मेरा मुस्तक़बिल
घिरा हुआ मैं इधर हाल के भँवर में हूँ,

रखेगी तुझ को मोअत्तर सदा महक मेरी
रचा हुआ मैं तेरे घर के बाम ओ दर में हूँ,

मेंरी परख को भी आएँगे जौहरी बेताब
हूँ लाल ए नाब मगर शहर ए कम नज़र में हूँ..!!

~सलीम बेताब

संबंधित अश'आर | गज़लें

Leave a Reply