अपनी सोचें शिकस्त ओ ख़ाम न कर
चल पड़ा है तो फिर क़याम न कर,
मैं भी हस्सास दिल का मालिक हूँ
सारे एहसास अपने नाम न कर,
जिस्म चाहे ग़ुलाम हो जाए लेकिन
ज़ेहनियत को अपनी ग़ुलाम न कर,
मैं ख़ुद अपनी नज़र से गिर जाऊँ
तू मेरा इतना एहतिराम न कर,
तेरे पीछे ग़ुबार उड़ने लगे
ख़ुद को तू इतना तेज़ गाम न कर,
लोग मश्कूक हो चले आज़र
अब हर एक शख़्स को सलाम न कर..!!
~मुश्ताक़ आज़र फ़रीदी