ज़ुल्म की हद ए इंतेहा को मिटाने का वक़्त है

ज़ुल्म की हद ए इंतेहा को मिटाने का वक़्त है
अब मज़लूमों का साथ निभाने का वक़्त है,

वो जो सोये हुए हैं ख़्वाब ए ख़रगोश की नींद
उन मुर्दा ज़मीरों को फिर से जगाने का वक़्त है,

वो जो बने बैठे हैं आज ठेकेदार सारे आलम के
उनकी ठेकेदारी फिर आज़माने का वक़्त है,

वो जिन्हें परवाह नहीं किसी के जीने मरने की
उन्हे मौत का एहसास याद दिलाने का वक़्त है,

क्यूँ डरे सहमे जिये हम मौत के खौफ़ से ?
आँखों मे आँख डाल ज़ुर्रत दिखाने का वक़्त है,

शहादत अगर नसीब है तो ज़हे नसीब अपने
हो मुबारक़ तुमको खुल्द जश्न मनाने का वक़्त है,

मुसलमां हो कर और डर जाएँगे ज़ालिम से
दुश्मन की ये खाम ख़याली मिटाने का वक़्त है,

दीन ए हक़ इस्लाम है और बाक़ी सब बातिल
यहूद ओ नसारा को ये बावर कराने का वक़्त है॥

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