ठहरे जो कहीं आँख तमाशा नज़र आए
सूरज में धुआँ चाँद में सहरा नज़र आए,
रफ़्तार से ताबिंदा उमीदों के झरोके
ठहरूँ तो हर एक सम्त अँधेरा नज़र आए,
साँचों में ढले क़हक़हे सोची हुई बातें
हर शख़्स के काँधों पे जनाज़ा नज़र आए,
हर राहगुज़र रास्ता भूला हुआ बालक
हर हाथ में मिट्टी का खिलौना नज़र आए,
खोई हैं अभी मैं के धुँदलकों में निगाहें
हट जाए ये दीवार तो दुनिया नज़र आए,
जिस से भी मिलें झुक के मिलें हँस के हों रुख़्सत
अख़्लाक़ भी इस शहर में पेशा नज़र आए..!!
~निदा फ़ाज़ली
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