फूलों की है तख़्लीक़ कि शोलों से बना है
कुंदन सा तेरा जिस्म जो ख़ुश्बू में बसा है,
जंगल के ग़ज़ालों पे अजब ख़ौफ़ है तारी
तूफ़ान कोई शहर की जानिब से उठा है,
ये हुस्न ए चमन है मेंरे एहसास की तख़्लीक़
वर्ना कहीं गुल है न कहीं मौज ए सबा है,
हर लफ़्ज़ तेरे चेहरे की तस्वीर बना था
किस कर्ब से सौ बार तेरे ख़त को पढ़ा है,
डालो मेंरे कानों में भी पिघला हुआ सीसा
ऐ बरहमनो मैं ने भी तो वेद सुना है,
तुम ढूंढ़ते फिरते हो जिसे सेहन ए चमन में
वो शख़्स अभी कूचा ए क़ातिल को गया है..!!
~सलीम बेताब