मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल…
मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं लाख समझाया कि इस महफ़िल में अब जाना नहीं, ख़ुद
मुस्तक़िल महरूमियों पर भी तो दिल माना नहीं लाख समझाया कि इस महफ़िल में अब जाना नहीं, ख़ुद
क्या ऐसे कम सुख़न से कोई गुफ़्तुगू करे जो मुस्तक़िल सुकूत से दिल को लहू करे, अब तो
धरती पर जब ख़ूँ बहता है बादल रोने लगता है देख के शहरों की वीरानी जंगल रोने लगता
नशात ए ग़म भी मिला रंज ए शाद मानी भी मगर वो लम्हे बहुत मुख़्तसर थे फ़ानी भी,
मशअल ए दर्द फिर एक बार जला ली जाए जश्न हो जाए ज़रा धूम मचा ली जाए, ख़ून
नहीं रोक सकोगे जिस्म की इन परवाजों को बड़ी भूल हुई जो छेड़ दिया कई साज़ों को, कोई
छोटी छोटी बातों पर परिवार बदलते देखे वक़्त ए ज़रूरत सब यार बदलते देखे, अब तो यकीन उठ
वही फिर मुझे याद आने लगे हैं जिन्हें भूलने में ज़माने लगे हैं, वो हैं पास और याद
हादसों का शहर है संभल जाइए कौन कब किस डगर है संभल जाइए, नेक रस्ते पे चलते हुए
क्यूँ ज़मीं है आज प्यासी इस तरह ? हो रही नदियाँ सियासी इस तरह, जान की परवाह किसे