न घर है कोई, न सामान कुछ रहा बाक़ी
नहीं है कोई भी दुनिया में सिलसिला बाक़ी,
ये खेल ख़त्म करो, इक़्तिदार का ये खेल
कि है क़रीब अजल के तेरा गला बाक़ी,
मक़ाम ए इबरत ए फ़ानी से कौन है महफ़ूज़
कि कौन हाकिम ए अस्बाब रह गया बाक़ी ?
सुकूत ए मर्ग के रस्ते पे कुछ नहीं था मगर
कोई चला ही कहाँ था कि कब रुका बाक़ी ?
ये कैसा आलम ए वीरान है नज़र से परे
न दिन बचा है न ही रात का सिरा बाक़ी,
बहुत न थोड़ा सर ए आम ज़िंदगी का शोर
कि दरमियान ही सुनते हैं एक सदा बाक़ी..!!
~अहमद हमेश