कहीं क़बा तो कहीं आस्तीं बिछाते हुए
मैं मर गया हूँ वफादारियाँ निभाते हुए,
अज़ीब रात थी आँखे ही ले गई मेरी
मैं बुझ गया था चिराग़ ए सहर जलाते हुए,
अज़ीब शख्स है क़ुर्बत के ख़्वाब दे के मुझे
बिछड़ गया है अचानक ही मुस्कुराते हुए,
सज़ा के तौर पे आँखे निकाल ली उसने
मैं रो पड़ा था उसे कोई दास्ताँ सुनाते हुए,
अज़ब नहीं था कि दरिया लपेट लेता मुझे
मैं भाग आया हूँ तिश्ना लबी बचाते हुए,
अज़ब उदासी तबीयत में भर गई है मियाँ
तुम्हारे शहर से अपना सफ़र उठाते हुए,
ख़ुदा ज़मीं पे होता तो फिर ऐ दुनियाँ वालो
कहीं दिखाई तो देता वो आते जाते हुए..!!