कौन मुन्सफ़, कहाँ इंसाफ़, किधर का दस्तूर
अब ये मिज़ान सजावट के सिवा कुछ भी नहीं,
अदालत की ईमारत, ये सुतून ओ दर ओ बाम
सब एक बेकार बनावट के सिवा कुछ भी नही,
सच वकीलों की भी उजरत नहीं देने पाता
झूठ के लाख गवाहान खड़े बोलते हैं,
और हकायेक़ की जगह शहर के आली मुन्सफ़
अद्ल ओ इंसाफ़ की मिज़ान में रोज़ तौलते हैं,
अब तो मुन्सफ़ के हथौड़े की धमक भी शायद
ज़र की झंकार से ऊँचीं नहीं होने पाती,
और कानून की गर्दन में वो ख़म आया है
अब ये दस्तार से ऊँचीं नहीं होने पाती,
अब तो तीसरी नस्ल दर ए अदल पे बैठी हुई है
वो जो मज़लूम हुआ करते थे क़ब्रों में पड़े सोते हैं,
काज़ी ए शहर है अरबाब ए हुकुमत का गुलाम
कौन कहता है कि मुफ़लिस के भी हक़ होते है,
नुक्ता चीनी को बग़ावत ही गिना जाता है
और बस सब्र की तलकीन हुई जाती है,
जो किसी तरह मोअजज़ भी नहीं मेरे लिए
उस अदालत की भी तौहीन हुई जाती है..!!