जिस तरफ़ चाहूँ पहुँच जाऊँ मसाफ़त कैसी
मैं तो आवाज़ हूँ आवाज़ की हिजरत कैसी ?
सुनने वालों की समाअत गई गोयाई भी
क़िस्सा गो तूने सुनाई थी हिकायत कैसी ?
हम जुनूँ वाले हैं हम से कभी पूछो प्यारे
दश्त कहते हैं किसे दश्त की वहशत कैसी ?
आप के ख़ौफ़ से कुछ हाथ बढ़े हैं लेकिन
दस्त ए मजबूर की सहमी हुई बैअत कैसी ?
फिर नए साल की सरहद पे खड़े हैं हम लोग
राख हो जाएगा ये साल भी हैरत कैसी ?
और कुछ ज़ख़्म मेरे दिल के हवाले मेरी जाँ
ये मोहब्बत है मोहब्बत में शिकायत कैसी ?
मैं किसी आँख से छलका हुआ आँसू हूँ ‘नबील’
मेरी ताईद ही क्या मेरी बग़ावत कैसी..??
~अज़ीज़ नबील