ज़हे क़िस्मत अगर तुम को हमारा दिल पसंद आया
मगर ये दाग़ क्यूँ कर ऐ मह-ए-कामिल पसंद आया,
किया है क़त्ल लेकिन देखिए जाँ कब निकलती है
कि उन को रक़्स-ए-बेताबाना-ए-बिस्मिल पसंद आया,
वो मोमिन भी है माँगेगा दुआ सिद्क़-तनासुख़ की
तेरे हाथों से मरना जिस को ऐ क़ातिल पसंद आया,
न पूछो कब से मैं शामिल हुआ हूँ तीरा-बख़्तों में
किसी के आरिज़-ए-रौशन का जब से तिल पसंद आया,
ये गुस्ताख़ी है ऐ महरूम अपनी हद से बढ़ता है
कि ता-हद्द-ए-ज़मीन-ए-ग़ालिब-ए-मुश्किल-पसंद आया..!!