दूर तक छाए थे बादल और कहीं साया न था
इस तरह बरसात का मौसम कभी आया न था,
सुर्ख़ आहन पर टपकती बूँद है अब हर ख़ुशी
ज़िंदगी ने यूँ तो पहले हम को तरसाया न था,
क्या मिला आख़िर तुझे सायों के पीछे भाग कर
ऐ दिल ए नादाँ तुझे क्या हम ने समझाया न था ?
उफ़ ये सन्नाटा कि आहट तक न हो जिसमें मुख़िल
ज़िंदगी में इस क़दर हम ने सुकूँ पाया न था,
ख़ूब रोए छुप के घर की चार दीवारी में हम
हाल ए दिल कहने के क़ाबिल कोई हमसाया न था,
हो गए खल्लास जब से आस की दौलत लुटी
पास अपने और तो कोई भी सरमाया न था,
वो पयम्बर हो कि आशिक़ क़त्ल गाह ए शौक़ में
ताज काँटों का किसे दुनिया ने पहनाया न था ?
अब खुला झोंकों के पीछे चल रही थीं आँधियाँ
अब जो मंज़र है वो पहले तो नज़र आया न था,
सिर्फ़ ख़ुश्बू की कमी थी ग़ौर के क़ाबिल ‘क़तील’
वर्ना गुलशन में कोई भी फूल मुरझाया न था..!!
~क़तील शिफ़ाई