दयार ए दाग़ ओ बेख़ुद शहर ए देहली छोड़ कर तुझ को
न था मा’लूम यूँ रोएगा दिल शाम ओ सहर तुझ को,
कहाँ मिलते हैं दुनिया को कहाँ मिलते हैं दुनिया में
हुए थे जो अता अहल ए सुख़न अहल ए नज़र तुझ को,
तुझे मरकज़ कहा जाता था दुनिया की निगाहों का
मोहब्बत की नज़र से देखते थे सब नगर तुझ को,
ब क़ौल ए मीर औराक़ ए मुसव्वर थे तेरे कूचे
मगर हाए ज़माने की लगी कैसी नज़र तुझ को ?
न भूलेगा हमारी दास्ताँ तू भी क़यामत तक
दिलाएँगे हमारी याद तेरे रहगुज़र तुझ को,
जो तेरे ग़म में बहता है वो आँसू रश्क ए गौहर है
समझते हैं मता ए दीदा ओ दिल दीदावर तुझ को,
मैं जालिब देहलवी कहला नहीं सकता ज़माने में
मगर समझा है मैं ने आज तक अपना ही घर तुझ को..!!
~हबीब जालिब

























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