अज़ाब ए वहशत ए जाँ का सिला न माँगे कोई

अज़ाब ए वहशत ए जाँ का सिला न माँगे कोई
नए सफ़र के लिए रास्ता न माँगे कोई,

बुलंद हाथों में ज़ंजीर डाल देते हैं
अजीब रस्म चली है दुआ न माँगे कोई,

तमाम शहर मुकर्रम बस एक मुजरिम मैं
सो मेरे बाद मेरा ख़ूँ बहा न माँगे कोई,

कोई तो शहर ए तज़ब्ज़ुब के साकिनों से कहे
न हो यक़ीन तो फिर मोजिज़ा न माँगे कोई,

अज़ाब ए गर्द ए ख़िज़ाँ भी न हो बहार भी आए
इस एहतियात से अज्र ए वफ़ा न माँगे कोई॥

~इफ़्तिख़ार आरिफ़

Leave a Reply