अब ज़र्द लिबादे भी नहीं ख़ुश्क शजर पर

अब ज़र्द लिबादे भी नहीं ख़ुश्क शजर पर
जिस सम्त नज़र उठती है बे रंग है मंज़र,

उतरे हैं मेरी आँखों में जलवो के सहीफ़े
ख़्वाबों का फ़रिश्ता हूँ मैं ग़ज़लों का पयम्बर,

बीते हुए लम्हों से मुलाक़ात अगर हो
ले आना हवाओ ज़रा एक बार मेरे घर,

इतराओ न मस्ती में जवाँ साल परिंदो
पुरवाई के झोंकों से भी कट जाते हैं शहपर,

आ जाते हैं जब भी तेरी ख़ुशबू के बुलावे
पेचीदा सवालात किया करता है बिस्तर..!!

~अशफ़ाक़ अंजुम

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