आदमी केवल वहम में तानता है
शर्तियाँ औकात वो अपनी जानता है,
रहनुमाई झूठ की कर ले मगर
वो वक़्त की सच्चाइयाँ पहचानता है,
जानता है हश्र उसके बाद का भी
गन्दगी में पैर बरबस ही सानता है,
चार दिन का है तमाशा ए ज़िन्दगी
मस्तियाँ फिर भी हमेशा छानता है,
है उसे मालूम शिखरों की ढलाने
वो बुलंदी की हसरते यूँ ही ठानता है,
कोई नहीं छोटा कभी ख़ुद से यहाँ पर
अफ़सोस कोई ख़ुद को ख़ुदा मानता है..!!