लाख रहे शहरों में फिर भी अन्दर से देहाती थे

लाख रहे शहरों में फिर भी अन्दर से देहाती थे
दिल के अच्छे लोग थे लेकिन थोड़े से जज़्बाती थे,

अब भी अक्सर ख़्वाब में वो धुँधले चेहरे आते है
मेरी नन्ही गुड़िया की शादी में जो नन्हे बाराती थे,

अपने गिर्द लकीरें खींची और फिर उनमें क़ैद हुए
इस दुनियाँ में खेल थे जितने सारे ही तबक़ाती थे,

झोपड़ियों में रहने वाले उनकी फ़ितरत जान गए
कभी कभी यूँ चढ़ आने वाले नाले जो बरसाती थे,

जिन बादलो ने सुख बरसाया, जिनसे छाँव मिली
आँखें खोल के देखा तो वो सब मौसम लम्हाती थे,

जिनको बड़ा माना था मैंने फ़रहत वो क्यूँ भूल गए ?
कुछ गोशे मेरे जीवन के बिल्कुल मेरे ज़ाती थे..!!

~फ़रहत ज़ाहिद

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