जब तेरा हुक्म मिला, तर्क ए मुहब्बत कर दी

जब तेरा हुक्म मिला, तर्क ए मुहब्बत कर दी
दिल मगर इस पे वो धड़का कि क़यामत कर दी,

तुझ से किस तरह मैं इज़हार ए तमन्ना करता
लफ्ज़ जो सूझे भी तो म’आनी ने बगावत कर दी,

मैं ने तो समझा था कि लौट आते हैं जाने वाले
तू ने तो जा कर जुदाई ही मेरी क़िस्मत कर दी,

तुझ को पूजा है कि असनाम परस्ती की है
मैं ने वहदत के मफ़ाहीम की कसरत कर दी,

मुझ को दुश्मन के इरादों पे भी प्यार आता है
तेरी उल्फ़त ने मुहब्बत मेरी आदत कर दी,

पूछ बैठा हूँ मैं तुझ से ही तेरे कूचे का पता
तेरे हालात ने ये कैसी तेरी सूरत कर दी ?

क्या तेरा जिस्म, तेरे हुस्न की हिद्दत में जला
राख किस ने तेरी सोने की सी रंगत कर दी..!!

~अहमद नदीम क़ासमी

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